सांख्ययोग
सांख्ययोग
ॐ
द्वितीयोऽध्यायः
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ १ ॥
संजय बोला
इस प्रकार आँसुओं से भरे व्याकुल नेत्रों से युक्त करुणा से घिरे हुए उस शोकातुर अर्जुन से मधुसूदन यह वचन कहने लगे । १ ।
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥ २ ॥
श्रीभगवानने कहा
हे अर्जुन तुझे यह श्रेष्ठ पुरुषों से असेवित स्वर्ग का विरोधी और अपकीर्ति करनेवाला मोह इस विषम स्थिति में कैसे हुआ । २ ।
क्लैब्यं मा स्म गम पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ॥ ३ ॥
हे पार्थ कायर्ता मत ला यह तुझमें शोभा नहीं पाती हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को छोड़कर खड़ा हो । ३ ।
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रति योत्स्यामिपूजार्हावरिसूदन ॥ ४ ॥
अर्जुनने कहा
हे मधुसूदन रण में भीष्म और द्रोण के साथ मैं किस प्रकार बाणों से युद्ध कर सकूँगा क्योंकि हे अरिसूदन वे दोनों पूजा के पात्र हैं । ४ ।
गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् ॥५ ॥
ऐसे महानुभाव गुरुओं को न मारकर इस जगत में भीख माँगकर खाना भी अच्छा है क्योंकि इन गुरुओं को मारकर इस संसार में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगुँगा । ५ ।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥
हम यह नहीं जानते कि क्या करना अच्छा है हम जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे । जिनको मारकर हम जीवित रहना भी नहीं चाहते वे धृतराष्ट्रपुत्र हमारे सामने खड़े हैं । ६ ।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढ़चेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥७ ॥
कायरतादोष से नष्ट हुए स्वभाववाला और धर्म का निर्णय करने में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ जो निश्चित ही हित बात हो वह मुझे बताइये मैं आपका शिष्य हूँ आपकी शरण में आये हुए मुझको उपदेश दीजिये । ७ ।
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ ८ ॥
क्योंकि पृथिवी में निष्कण्टक सम्पन्न राज्य को या देवताओं के स्वामित्व को पाकर भी मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देख रहा हूँ जो मेरी इन्द्रियों के सुखानेवाले शोक को दूर कर सके । ८ ।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तुष्णीं बभूव ह ॥९ ॥
संजय बोला
हे परंतप गुडाकेश हृषीकेश से इस प्रकार कह चुकने के बाद यह बात कहकर कि मैं युद्ध नहीं करूँगा चुप हो गया । ९ ।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥ १० ॥
हे भारत इस तरह दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन से हृषीकेश मुसकराकर यह वचन कहने लगे । १० ।
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासुनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ ११ ॥
उन न शोक करने योग्य भीष्मादि के निमित्त तू शोक करता है साथ ही बुद्धिमान की तरह बोलता भी है । जिन के प्राण चले गये और जिन के नहीं गये दोनों के लिये भी पण्डित शोक नहीं करता है । ११ ।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२ ॥
किसी काल में मैं नहीं था ऐसा नहीं तू नहीं था ऐसा नहीं ये राजालोग नहीं थे ऐसा नहीं और ऐसा भी नहीं कि इस के बाद हम सब नहीं रहेंगे । १२ ।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥
देही की जैसे इस शरीर में कौमार यौवन और जरा अवस्थाएँ हैं वैसे देहान्तर की प्राप्ति भी है धीर पुरुष इस में मोहित नहीं है । १३ ।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥
हे कौनतेय इन्द्रियाँ और विषयों का संयोग शीत उष्ण सुख और दुःख देनेवाला है हे भारत जिससे कि वे उत्पत्ति और विनाशशील अर्थात अनित्य हैं अतः उनको तू सहन कर । १४ ।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥
हे पुरुषर्षभ जिस पुरुष को ये द्वन्द्व व्यथा नहीं पहुँचा सकते हैं वही दुःख और सुख में समान दृष्टिवाला धीर अमृत के लिये समर्थ है । १५ ।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १६ ॥
अविद्यमान अनात्मा का अस्तित्व नहीं है और विद्यमान आत्मा का अभाव नहीं है इस प्रकार दोनों का निर्णय तत्त्वदर्शियों द्वारा देखा गया है । १६ ।
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥
उस सत् को तू अविनाशी जान जिस के द्वारा संपूर्ण विश्व व्याप्त है इस अव्यय के विनाश के लिये कोई भी समर्थ नहीं है । १७ ।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युद्धस्व भारत ॥ १८ ॥
इस अविनाशी अप्रमेय शरीरधारी नित्य सत् के ये सब शरीर अन्तवाले कहे गये हैं इस लिये हे भारत तू युद्ध कर । १८ ।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हत्यते ॥ १९ ॥
जो इस को मारनेवाला समझता है और जो दूसरा इस को मरा हुआ समझता है वे दोनों उस को नहीं जानते हैं यह नहीं मारता है और नहीं मारा जाता है । १९ ।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥
यह कभी नहीं जनमता है और मरता भी नहीं है ऐसा नहीं कि यह उत्पन्न होकर फिर अभाव को प्राप्त करे या न रहकर फिर उत्पन्न हो । इसलिये यह सत् अज और नित्य है सदा रहने और क्षय न होने के कारण शाश्वत है वृद्धि न होने के कारण पुराण है शरीर के नाश होने पर नष्ट नहीं है । २० ।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥
जो इस को अविनाशी नित्य अज और अव्यय जानता है हे पार्थ वह पुरुष कैसे किसको मारता है और कैसे किसको मरवाता है । २१ ।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २२ ॥
जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही देही जीर्ण शरीरों को त्याग कर अन्यान्य नवीन शरीरों को ग्रहण करता है । २२ ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काटते अग्नि नहीं जलाता जल भिगो नहीं देता वायु नहीं सुखाता है । २३ ।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥
यह आत्मा न कटनेवाला न जलनेवाला न गलनेवाला न सूखनेवाला है इसलिये नित्य है इसलिये सर्वव्यापी है इसलिये स्थिर है इसलिये अचल है इसलिये पुराण है । २४ ।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ॥
यह व्यक्त नहीं है इसलिये चिन्तन का विषय नहीं है यह निराकार है इस को इस प्रकार जानकर तुझे शोक नहीं करना चाहिये । २५ ।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ २६ ॥
यदि तू इस आत्मा को सदा जनमनेवाला या सदा नष्ट हुआ मानता है तो भी हे महाबाहो तुझे इस प्रकार का शोक नहीं करना चाहिये । २६ ।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥
जिसने जन्म लिया है उस का मरण निश्चित है और जो मर गया है उस का जन्म निश्चित है इस अपरिहार्य विषय के निमित्त तुझे शोक नहीं करना चाहिये । २७ ।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ २८ ॥
समस्त भूत जन्म के पहले अदृश्य हैं जन्म लेकर मृत्यु के पहले बीच में दृश्य हैं और मरने के बाद फिर अदृश्य हो ही जाते हैं तब क्या चिन्ता क्यों करना है। २८ ।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २९ ॥
इस आत्मा को कोई आश्चर्यवत् देखता है कोई अन्य आश्चर्यवत् कहता है कोई अन्य आश्चर्यवत् सुनता है फिर देखता कहता सुनता भी कोई नहीं जानता । २९ ।
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥३० ॥
हे भारत यह देही सर्वव्यापी होने से सब देह में अवध्य ही है इसलिये सब प्राणियों के निमित्त तुझे शोक करना उचित नहीं है । ३० ।
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥
अपने धर्म को देखकर तुझे विचलित होना उचित नहीं है क्षत्रिय के लिये धर्ममय युद्ध से श्रेयस्कर नहीं जाना जाता है । ३१ ।
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ ३२ ॥
हे पार्थ अनिच्छा से प्राप्त ऐसे खुले हुए स्वर्गद्वाररूप युद्ध को जो क्षत्रिय पाते हैं वे सुखी हैं । ३२ ।
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
यदि तू इस धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा तब अपने धर्म और कीर्ति को नष्ट करके पाप को प्राप्त होगा । ३३ ।
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥
सब लोग तेरी स्थायी अपकीर्ति करेँगे और प्रतिष्ठा पाये हुए के लिये अपकीर्ति मृत्यु से भी अधिक होती है । ३४ ।
भयाद्रणदुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥
महारथीगण तुझे भय के कारण रण से निवृत्त हुआ मानेंगे जिनके मत में तू पहले बहुत गुणों से युक्त माना जाकर अब लघुता को प्राप्त होगा । ३५ ।
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६ ॥
तेरे शत्रुगण तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वाक्य भी कहेंगे उससे बड़ा दुःख क्या है । ३६ ।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥
या तो मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त करेगा या जीतकर पृथिवी का राज्य भोगेगा इसलिये हे कौन्तेय युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा । ३७ ।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
तथा युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥
सुखदुःख को लाभ हानि को जय पराजय को समान समझकर युद्ध के लिये चेष्टा कर ऐसे पाप को प्राप्त नहीं होगा । ३८ ।
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥
तुझसे यह सांख्यविषयक ज्ञान कह दिया है कर्मयोग और समाधियोग के विषय में जो ज्ञान है वही सुन । हे पार्थ जिस ज्ञान से युक्त हुआ तू कर्मबन्धनों का नाश कर डालेगा । ३९ ।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥
योगविषयक प्रारम्भ का नाश नहीं होता तथा विपरीत फल भी नहीं होता इस योगरूप धर्म का थोड़ासा अनुष्ठान भी महान संसारभय से रक्षा करता है । ४० ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ ४१ ॥
हे कुरुनन्दन इस मार्ग में विवेकबुद्धि एक ही है और जो विवेकबुद्धि से रहित हैं उनकी बहुत भेदोंवाली बुद्धियाँ अनन्त हैं । ४१ ।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ ४२ ॥
अविवेकी लोग इस आगे कही जानेवाली सुशोभित वाणी को कहते हैं जो लोग हे पार्थ वेदवाक्यों में रत हैं और इसके अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं है ऐसे कहनेवाले हैं । ४२ ।
कामात्मानः स्वर्गपराः जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगति प्रति ॥ ४३ ॥
कामात्मा स्वर्ग को परम् पुरुषार्थ माननेवाला लोग जन्मरूप कर्मफल को देनेवाली बहुत से क्रियाविशेषों से युक्त वाणी को भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये कहते हैं । ४३ ।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ ४४ ॥
जो भोग और ऐश्वर्य में आसक्त हैं और उपर्युक्त वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है उनको समाधि में भी विवेकबुद्धि नहीं है । ४४ ।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥
वेद त्रिगुणात्मक संसार को प्रकाशित करनेवाले हैं अर्जुन तू त्रिगुणों से रहित असंसारी हो द्वन्द्वों से रहित हो सदा सत्त्वगुण में स्थित हो योगक्षेम को न चाहनेवाला हो और आत्मविषयों में प्रमादरहित हो । ४५ ।
यावानर्थ उदपाने सर्वतःसंप्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ४६ ॥
जैसे अनेक छोटे जलाशयों में जितने भी फल हैं वे सब पूर्ण महान् जलाशय में एक साथ ही मिलते हैं इसी तरह वेदोक्त कर्मों का जितने भी फल हैं वे सब सन्यासी के परिपूर्ण ज्ञान में एक साथ मिलते हैं । ४६ ।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७ ॥
तेरा कर्म में ही अधिकार है कर्मों के फल में कभी नहीं तू कर्मफलप्राप्ति का हेतु मत बन और कर्म न करने में भी तेरा सङ्ग नहीं होना चाहिये । ४७ ।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥
हे धनंजय योग में स्थित होकर कर्म कर सङ्ग को त्याग करके सिद्धि और असिद्धि में सम होकर समत्व को योग कहते हैं । ४८ ।
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥
हे धनंजय सकाम कर्म बुद्धियोग से किये जानेवाले कर्म से अत्यन्त निकृष्ट है इसलिये तू बुद्धियोग का आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फलहेतु सकाम कर्म करनेवाले दीन हैं । ४९ ।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ ५० ॥
योगबुद्धि से युक्त पुरुष पुण्य पाप दोनों को यहीं त्याग देता है अतः तू बुद्धियोग से युक्त हो योग ही कर्मों में कुशलता है । ५० ।
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥
योगबुद्धि से युक्त ज्ञानी पुरुष कर्मों से उत्पन्न होनेवाला फल को छोड़कर जन्म के बन्धनों से मुक्त हो जाके सर्वोपद्रवरहित परमपद को पाते हैं ॥ ५१ ॥
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥
जब तेरी बुद्धि मोहात्मक अविवेकरूपी कालुष्य को उल्लङ्घन कर जायेगी तब तू सुननेयोग्य और सुने हुए से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा । ५२ ।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा सास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥
अनेक श्रुतियों से नाना प्रकार भावों को प्राप्त हुई तेरी बुद्धि जब समाधि में अचल और स्थिर हो जायेगी तब तू योग को प्राप्त होगा । ५३ ।
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४ ॥
अर्जुनने कहा
हे केशव जिसकी बुद्धि परमात्मा में स्थित है ऐसे समाधि में स्थित पुरुष का क्या लक्षण है और ऐसे स्थितप्रज्ञ पुरुष कैसे बोलता रहता चलता है । ५४ ।
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोरथान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥
श्रीभगवानने कहा
हे पार्थ जब मनुष्य मन में रहनेवाली हर प्रकार की इच्छाओं को छोड़ देता है तब वह अपने अन्तरात्मा में संतुष्ट स्थितप्रज्ञ ज्ञानी कहलाता है । ५५ ।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ ५६ ॥
दुःखों के प्राप्त होने में जिसका मन क्षुभित नहीं होता और सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा नष्ट हो चुकी है तथा जिसके आसक्ति भय और क्रोध समाप्त हो गये ऐसे स्थितधी मुनि कहलाता है । ५६ ।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दन्ति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥
जो सर्वत्र स्नेह से रहित है और शुभ में प्रसन्न नहीं होता है अशुभ में द्वेष नहीं करता है उसकी विवेकजनित बुद्धि प्रतिष्ठित है । ५७ ।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥
जब यह पुरुष जैसे कच्छुआ अपने अङ्गों को सब ओर से खींच लेता है वैसे ही अपने इन्द्रियों को सब विषयों से खींच लेता है तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित होती है । ५८ ।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥
विषयों को ग्रहण न करनेवाला देहाभिमानी मनुष्य के शब्दादि विषय निवृत्त हो जाते हैं परन्तु उनमें होनेवाली आसक्ति नहीं इसकी आसक्ति परमार्थतत्त्व का दर्शन होने पर निवृत्त हो जाती है । ५९ ।
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ ६० ॥
हे कौन्तेय प्रयत्नशील बुद्धिमान पुरुष की भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उस को क्षुब्ध कर देती हैं और उस केवल प्रकाश को देखनेवाले के मन को विचलित कर देती हैं । ६० ।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥
उन सब इन्द्रियों को संयमित करके समाहितचित्तवाले को मेरे परायण होना चाहिये जिसकी इन्द्रियाएँ अपने वश में हैं उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित होती है । ६१ ।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ ६२ ॥
विषयों का ध्यान करनेवाला पुरुष की विषयों में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है । ६२ ।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ ६३ ॥
क्रोध से संमोह और संमोह से स्मृति का भ्रम उत्पन्न होता है स्मृति के भ्रम से कार्य अकार्य विषयक विवेक की अयोग्यतारूपी बुद्धिनाश उत्पन्न होता है और बुद्धिनाश से मनुष्य की मनुष्यता नष्ट हो जाती है । ६३ ।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥
राग और द्वेष को लेकर इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है जिसका अन्तःकरण अपने वश में है ऐसा पुरुष अपने वश में लायी हुई इन्द्रियों से प्रसाद को प्राप्त होता है । ६४ ।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ ६५ ॥
प्रसाद प्राप्त होने पर इसके समस्त दुःखों का नाश हो जाता है उस प्रसन्नचित्तवाले की बुद्धि सब ओर से स्थिर हो जाती है । ६५ ।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥ ६६ ॥
जिसका अन्तःकरण समाहित नहीं है उसकी आत्मविषयक बुद्धि नहीं रहती है और उसका आत्मज्ञान में अतिशय प्रवेश नहीं है आत्मज्ञान में संलग्न न होनेवाले को शान्ति नहीं मिलती है अशान्त को सुख कहाँ से मिलता है । ६६ ।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ ६७ ॥
अपने अपने विषयों में विचरनेवाली इन्द्रियों के पीछे जो मन लगता है वही मन उस साधक की विवेकबुद्धि को हर लेता है जैसे जल में नौका को वायु हर लेता है । ६७ ।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८ ॥
इसलिये हे महाबाहो जिसकी इन्द्रियाँ अपने विषयों से सब प्रकार से निगृहीत की जा चुकी हैं उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है । ६८ ।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ६९ ॥
सब भूतों की जो परमार्थविषयक रात्रि है जितेन्द्रिय योगी उसीमें जागता है और जिसमें सब भूत स्वप्न देखनेवालों के समान जागते हैं वही अविद्यारूप होने के कारण मुनि के लिये रात्रि है । ६९ ।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ७० ॥
जिस प्रकार जल से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्र में सब ओर से जल प्रवेश करते हैं उसी प्रकार विषयों का सङ्ग होने पर भी जिस पुरुष में समस्त इच्छाएँ समुद्र में जल की तरह कोई भी विकार उत्पन्न न करती हुई सब ओर से प्रवेश करती हैं उसको शान्ति मिलती है विषयों की कामना करनावाले को नहीं । ७० ।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ ७१ ॥
जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग करके स्पृहारहित विचरता है जो ममता और अहङ्कार से भी रहित है वह परम शान्ति को पाता है । ७१ ।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ ७२ ॥
यही अवस्था ब्राह्मी स्थिति है हे पार्थ मनुष्य इस स्थिति को पाकर फिर मोहित नहीं होता वह अन्तकाल में भी इस स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाणरूप मोक्ष को प्राप्त होता है । ७२ ।
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥