गुणत्रयविभागयोग
गुणत्रयविभागयोग
ॐ
चतुर्दशोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ १ ॥
श्रीभगवान बोले
समस्त ज्ञानों में परम उत्तम ज्ञान को मैं फिर भली प्रकार कहूँगा जिसको जानकर सब मुनिलोग इस के बाद परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं । १ ।
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ २ ॥
इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरी समानता को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टिकाल में भी फिर उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्यथा को प्राप्त नहीं होते हैं । २ ।
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ ३ ॥
मेरी माया भूतों की महत् ब्रह्मरूप योनि है जिसमें मैं गर्भ को स्थापित करता हूँ हे भारत उससे सब भूतों की उत्पत्ति होती है । ३ ।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ ४ ॥
हे कौन्तेय समस्त योनियों में जो मूर्तियाँ उत्पन्न होती हैं उनकी महत् ब्रह्म योनि है और मैं बीज प्रदान करनेवाला पिता हूँ । ४ ।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५ ॥
सत्त्व रज और तम ये गुण हैं हे महाबाहो ये प्रकृति से उत्पन्न हुए इस देह में अविनाशी देही को मानो बाँध लेते हैं । ५ ।
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ ६ ॥
उनमें सत्त्व निर्मल होने के कारण प्रकाशक और अनामय है तथा हे अनघ सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से मानो नियुक्त कर देता है । ६ ।
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ ७ ॥
हे कौन्तेय तू रज को रागात्मक तथा तृष्णा और आसक्ति का कारण जान वह रजोगुण क्षेत्रज्ञ को कर्म की आसक्ति से मानो नियुक्त कर देता है । ७ ।
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ ८ ॥
हे भारत तम को तू अज्ञानज और सब देहियों को मोहित करनेवाला जान वह तमोगुण प्रमाद आलस्य और निद्रा से मानो नियुक्त कर देता है । ८ ।
सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ॥ ९ ॥
हे भारत सत्त्व सुख में रज कर्म में नियुक्त करता है तथा तम ज्ञान को आच्छादित करके फिर प्रमाद में नियुक्त करता है । ९ ।
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ १० ॥
हे भारत सत्त्व रज और तम को रज सत्त्व और तम को तम सत्त्व और रज को दबाकर उन्नत होता है । १० ।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ ११ ॥
जब इस देह के सब द्वारों में ज्ञानप्रकाश उत्पन्न हो तब इसीसे समझना चाहिये कि सत्त्व भी बढ़ा है । ११ ।
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ १२ ॥
हे भरतर्षभ लोभ सांसारिक चेष्टा कर्मों का आरम्भ अशान्ति और तृष्णा ये सब रज के बढ़ने पर उत्पन्न होते हैं । १२ ।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ १३ ॥
हे कुरुनन्दन अप्रकाश अप्रवृत्ति प्रमाद और मोह ही ये सब तम के बढ़ने पर उत्पन्न होते हैं । १३ ।
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥
जब यह देहधारी जीव सत्त्व की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है तब उत्तम तत्त्व को जाननेवालों के निर्मल लोकों को प्राप्त होता है । १४ ।
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते ॥ १५ ॥
रज की वृद्धि में मरकर कर्मासक्तों में उत्पन्न होता है और वैसे ही तम के बढ़ने पर मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है । १५ ।
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥ १६ ॥
सात्त्विक कर्मों का फल सात्त्विक और निर्मल बताया है राजस कर्मों का फल दुःख और तामस कर्मों का फल अज्ञान बताया है । १६ ।
सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ १७ ॥
सत्त्व से ज्ञान उत्पन्न होता है और रज से लोभ ही तम से प्रमाद मोह तथा अज्ञान ही उत्पन्न होते हैं । १७ ।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ १८ ॥
सत्त्वस्थित पुरुष उच्च स्थान को जाते हैं राजस पुरुष मध्य में रहते हैं और जघन्य गुणों में स्थित तामस पुरुष नीचे जाते हैं । १८ ।
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १९ ॥
जब द्रष्टा गुणों से अन्य कर्ता को नहीं देखता है और गुणों से पर आत्मा को जानता है तब मेरे भाव को प्राप्त होता है । १९ ।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ २० ॥
इन तीनों देहोत्पत्ति के कारणभूत गुणों का अतिक्रम करके देहधारी पुरुष जन्म मृत्यु जरा और दुःख से मुक्त होकर अमृत का अनुभव करता है । २० ।
अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ २१ ॥
अर्जुन बोला
हे प्रभो इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन लक्षणों से युक्त है कैसे आचरणवाला होता है और किस प्रकार से इन तीनों गुणों से अतीत हो जाता है । २१ ।
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥ २२ ॥
श्रीभगवान बोले
हे पाण्डव प्रकाश प्रवृत्ति और मोह हैं ही ये जब प्रवृत्त हैं तब वह इनसे द्वेष नहीं करता है और जब निवृत्त हैं तब उनकी आकाङ्क्षा नहीं करता है । २२ ।
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ २३ ॥
उदासीन की तरह जो गुणों द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है गुण ही बर्त रहे हैं जो ऐसा ही समझकर स्थित रहता है वह चलायमान नहीं होता है । २३ ।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ २४ ॥
जो सुख और दुःखों में समान है जो स्वस्थ है जिसके लिये मिट्टी पत्थर और सुवर्ण समान हैं जो प्रिय और अप्रिय को समान समझता है जो धीर है और जो निन्दा और स्तुति को समान समझता है । २४ ।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ २५ ॥
जो मान और अपमान में समान है तथा मित्र और शत्रुपक्ष के लिये भी समान है तथा जो समस्त आरम्भों का परित्याग करनेवाला है वह गुणातीत कहलाता है । २५ ।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६ ॥
जो विचलित न होनेवाले भक्तियोग से मेरी सेवा करता है वह गुणों को अतिक्रमण करके ब्रह्मलोक को पाने योग्य समझा जाता है । २६ ।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७ ॥
क्योंकि मैं ही अविनाशी निर्विकार नित्य धर्मस्वरूप और अविचलित सुखस्वरूप ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूँ । २७ ।
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥