पुरुषोत्तमयोग
Purushottamayoga
पुरुषोत्तमयोग
Purushottamayoga
ॐ
पञ्चदशोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १ ॥
श्रीभगवान बोले
यह ऊपर मूलवाला और नीचे शाखावाला अश्वत्थ वृक्ष को अव्यय कहते हैं जिसके पत्ते वेद हैं जो इसे जानता है वह वेदों को जाननेवाला है । १ ।
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥ २ ॥
उसकी तीनों गुणों से बढ़ी हुई शाखाएँ और विषयरूपी अङ्कुर नीचे और ऊपर फैले हुए हैं मनुष्यलोक में वे कर्मानुबन्धिनी मूलें नीचे भी अविच्छिन्न रूप से फैली हुई हैं । २ ।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ ३ ॥
इसका रूप जैसा यहाँ वर्नण किया है वैसा उपलब्ध नहीं है और इसका न अन्त न आदि एवं न स्थिति है इस सुदृढ़ मूलवाले अश्वत्थवृक्ष को तेज असङ्गशस्त्र से छेदन करके । ३ ।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥
उसके बाद उस पद को खोजना चाहिये जिसमें पहुँचे हुए पुरुष फिर नहीं लौटते उसी आदिपुरुष को मैं प्राप्त करता हूँ इस भाव से खोजना चाहिये जिससे यह सनातन प्रवृत्ति प्रसृत है । ४ ।
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ ५ ॥
जो मान और मोह से मुक्त हैं जिन्होंने आसक्तिदोष को जीत लिया है जो नित्य अध्यात्मविचारों में लगे हैं जिनकी कामनाएँ निवृत्त हैं जो सुख दुःख नामक द्वन्द्वों से मुक्त हैं वे मोहरहित पुरुष उस अविनाशी पद को प्राप्त होते हैं । ५ ।
न तद्भासयते सुर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ ६ ॥
मेरे उस परम धाम को न सूर्य न शशाङ्क न पावक प्रकाशित कर सकते हैं जिस पद को प्राप्त होकर पुरुष फिर नहीं लौटते हैं । ६ ।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ ७ ॥
जीवलोक में जो मेरा जीवरूप सनातन अंश है यह जीव अपनी प्रकृतियों में स्थित इन्द्रियों और मन को आकर्षित करता है । ७ ।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥ ८ ॥
जब यह जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को पाता है तब जैसे वायु गन्ध को अपने आशय से ले जाता है वैसे ही जीव मन आदी इन्द्रियों को ग्रहण करके जाता है । ८ ।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥ ९ ॥
यह जीव श्रोत्र चक्षु त्वचा रसना घ्राण और मन को अधिष्ठित करके विषयों का सेवन करता है । ९ ।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ १० ॥
शरीर का उत्क्रमण करते हुए को या शरीर में स्थित हुए को भोग करते हुए को या गुणों से युक्त हुए को मूढ़ लोग नहीं देखते हैं परंतु जो ज्ञानचक्षुओं से युक्त हैं वे देखते हैं । १० ।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥ ११ ॥
प्रयत्न करनेवाले और योगी लोग इस अपने अन्तःकरण में स्थित आत्मा को देखते हैं परंतु प्रयत्न करते हुए भी असंस्कृत अन्तःकरणवाले अविवेकी पुरुष इसको नहीं देखते हैं । ११ ।
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ १२ ॥
जो आदित्य में स्थित तेज अखिल जगत् को प्रकाशित करता है और जो चन्द्रमा में तथा अग्नि में भी स्थित है उसको मेरा तेज समझ । १२ ।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ १३ ॥
मैं पृथिवी में प्रविष्ट होकर मेरे ओज से समस्त भूतों का धारण करता हूँ और रसात्मक सोम होके मैं समस्त ओषधियों का पोषण करता हूँ । १३ ।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ १४ ॥
मैं प्राणियों के देह में रहनेवाला वैश्वानर होके प्राण और अपान से युक्त होके चतुर्विध अन्न को पचाता हूँ । १४ ।
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ १५ ॥
मैं समस्त भूतों के अन्तःकरण में निविष्ट हूँ मुझसे ही स्मृति ज्ञान और दोनों का लोप भी हैं मैं सब वेदों द्वारा जाननेयोग्य हूँ तथा मैं वेदान्त का कर्ता और वेदविद् भी हूँ । १५ ।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १६ ॥
लोक में ये दो पुरुष हैं क्षर और अक्षर प्रकृति का सारा विकार क्षर और कूटस्थ अक्षर कहा जाता है । १६ ।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ १७ ॥
उत्तम पुरुष अन्य ही है जो परमात्मा कहा जाता है जो तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर उनको धारण करता है और जो अविनाशी ईश्वर है । १७ ।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ १८ ॥
क्योंकि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ इसलिये मैं लोक और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से विख्यात हूँ । १८ ।
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ १९ ॥
जो मोहरहित मनुष्य मुझ पुरुषोत्तम को इस प्रकार से जानता है वह सर्वविद् हे भारत मुझको सब का आत्मा समझकर भजता है । १९ ।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥ २० ॥
हे अनघ यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा है हे भारत इसको जानकर बुद्धिमान पुरुष कृतकृत्य होता है । २० ।
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥