मोक्षसंन्यासयोग
मोक्षसंन्यासयोग
ॐ
अष्टादशोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥ १ ॥
अर्जुन बोला
हे महाबाहो हे हृषीकेश हे केशिनिषूदन मैं संन्यास का और त्याग का तत्त्व पृथक पृथक जानना चाहता हूँ । १ ।
श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥ २ ॥
श्रीभगवान बोले
काम्य कर्मों के परित्याग को कुछ कवि लोग संन्यास समझते हैं और कुछ विचक्षण पण्डित लोग सम्पूर्ण कर्मों के फल के परित्याग को त्याग कहते हैं । २ ।
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥ ३ ॥
कुछ मनीषि लोग कहते हैं कि कर्म दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य है और कुछ दूसरे कहते हैं कि यज्ञ दान तथा तपोकर्म त्याज्य नहीं है । ३ ।
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः ॥ ४ ॥
हे भरतसत्तम उस त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन हे पुरुषव्याघ्र वह तीन प्रकार का त्याग शास्त्रों में सम्यक रूप से कहा गया है । ४ ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ ५
यज्ञ दान और तपोकर्म त्याज्य नहीं है इन्हें तो करना ही है क्योंकि यज्ञ दान और तप ये तीनों मनीषियों को पवित्र करनेवाले हैं । ५ ।
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥ ६ ॥
ये कर्म आसक्ति और फल को त्याग करके अनुष्ठान किये जाने चाहिये हे पार्थ यह मेरा निश्चित उत्तम मत है । ६ ।
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥ ७ ॥
नित्यकर्मों का संन्यास नहीं बन सकता मोह से उनका त्याग तामस कहा जाता है । ७ ।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥ ८ ॥
कर्म दुःख ही है ऐसा मानकर जो शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों को छोड़ता है वह राजस त्याग करके त्याग का फल नहीं पाता है । ८ ।
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥ ९ ॥
हे अर्जुन करना चाहिये ऐसा समझकर जो नित्यकर्म आसक्ति और फल को छोड़कर किये जाते हैं वह त्याग सात्त्विक माना जाता है । ९ ।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥ १० ॥
अकुशल कर्मों में जो द्वेष नहीं करता है और कुशल कर्मों में प्रीति नहीं करता है वह त्यागी है सात्त्विक भाव से युक्त है मेधावी है संशयरहित है । १० ।
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥ ११ ॥
देहधारी कर्मों को पूर्णतया त्याग करने में असमर्थ है इसलिये जो कर्मों के फल का त्याग करनेवाला है वह त्यागी कहा जाता है । ११ ।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ॥ १२ ॥
अनिष्ट इष्ट और मिश्रित कर्मों के यह तीन प्रकार का फल अत्यागियों को मरने के बाद मिलता है संन्यासियों को कभी नहीं । १२ ।
पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥ १३ ॥
हे महाबाहो समस्त कर्मों की सिद्धि के लिये कृतान्त सांख्यशास्त्र में कहे हुए इन पाँचों कारणों को तू मुझसे जान । १३ ।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥ १४ ॥
अधिष्ठान तथा कर्ता अलग प्रकार के करण और विविध चेष्टाएँ एवं पाँचवान दैव हैं । १४ ।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥ १५ ॥
शरीर वाणी और मन के द्वारा मनुष्य जो कुछ न्याययुक्त या उसके विपरीत कर्म करता है उसके ये पाँच हेतु हैं । १५ ।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥ १६ ॥
ऐसा होने से उन पाँचों में कर्ता के रूप में केवल आत्मा को जो असंस्कृतबुद्धि से देखता है वह दुर्मतिवाला नहीं देखता है । १६ ।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ १७ ॥
जिसका मैं नहीं करता हूँ ऐसा भाव है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती है वह इन समस्त प्राणियों को मारकर भी नहीं मारता है और नहीं बँधता है । १७ ।
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥ १८ ॥
ज्ञान ज्ञेय और ज्ञाता यह कर्मों की प्रवर्तक तीन प्रकार की कर्मचोदना है करण कर्म तथा कर्ता यह तीन प्रकार का कर्मसंग्रह है । १८ ।
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥ १९ ॥
ज्ञान कर्म और कर्ता गुणों की संख्या करनेवाले शास्त्र में गुणों के भेद से तीन प्रकार के कहे जाते हैं उनको तू यथावत् सुन । १९ ।
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥ २० ॥
जिसके द्वारा मनुष्य समस्त भूतों में एक अक्षय भाव को और भिन्न भिन्न देहों में एक अविभक्त को देखता है उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान । २० ।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ॥ २१ ॥
और जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य समस्त भूतों में नाना प्रकार के भिन्न भिन्न भावों को अपने से पृथकरूप से जानता है उस ज्ञान को तू राजस जान । २१ ।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥
जो ज्ञान किसी एक कार्य में पूर्ण ज्ञान की तरह आसक्त है तथा जो हेतुरहित तत्त्वार्थ से रहित इसलिये अल्प है वह तामस कहा गया है । २२ ।
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥ २३ ॥
जो नित्य आसक्तिरहित कर्म फल की इच्छा न करनेवाले पुरुष के द्वारा विना रागद्वेष के किया गया है वह सात्त्विक कहा जाता है । २३ ।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥ २४ ॥
जो कर्म फल की इच्छा करनेवाले या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा या बहुत परिश्रम से किया जाता है वह राजस कहा जाता है । २४ ।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५ ॥
जो कर्म अनुबन्ध क्षय हिंसा और पौरुष की अपेक्षा न करके मोह से आरम्भ किया जाता है वह तामस कहा जाता है । २५ ।
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥ २६ ॥
सङ्गरहित अनहंवादी धृति और उत्साह से युक्त फल की सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार कर्ता सात्त्विक कहा जाता है । २६ ।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः ।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥ २७ ॥
आसक्तियुक्त कर्मफल की इच्छा करनेवाला लोभी हिंसक अशुद्ध हर्ष और शोक से युक्त कर्ता राजस कहा जाता है । २७ ।
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥ २८ ॥
असमाहित असंस्कृत न झुकनेवाला मायावी अन्यों की वृत्ति का छेदन करनेवाला आलसी शोकग्रस्त और विलम्ब करनेवाला कर्ता तामस कहा जाता है । २८ ।
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ॥ २९ ॥
हे धनंजय बुद्धि और धृति के भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार के भेद तू पृथक पृथक अशेष रूप से यथावत् कहे हुए सुन । २९ ।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥ ३० ॥
हे पार्थ जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति को कर्तव्य और अकर्तव्य को भय और अभय को बन्धन और मोक्ष को जानती है वह सात्त्विक है । ३० ।
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥ ३१ ॥
हे पार्थ जिसके द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को कार्य और अकार्य को यथावत् रूप से नहीं जानता है वह बुद्धि राजस है । ३१ ।
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥ ३२ ॥
हे पार्थ जो तमोगुण से आवृत बुद्धि अधर्म को धर्म और सब विषयों को विपरीत मान लेती है वह तामस है । ३२ ।
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृति सा पार्थ सात्त्विकी ॥ ३३ ॥
जिस नित्य समाधि में समाहित धृति द्वारा मन प्राण और इन्द्रियों की चेष्टाएँ धारण की जाती हैं वह धृति सात्त्विक है । ३३ ।
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन ।
प्रसङ्गेन फलाकांक्षी धृति सा पार्थ राजसी ॥ ३४ ॥
हे अर्जुन जिस धृति द्वारा धर्म काम और अर्थ धारण किये जाते हैं तथा जो जो प्रसङ्ग आता है उस की फलेच्छुक मनुष्य की जो धृति है वह राजस है । ३४ ।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृति सा तामसी मता ॥ ३५ ॥
जिस धृति द्वारा कुबुद्धिवाला मनुष्य स्वप्न भय शोक अवसाद और मद को नहीं छोड़ता वह धृति तामस है । ३५ ।
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥ ३६ ॥
हे भरतर्षभ अब तू मुझसे तीन प्रकार के सुख को सुन जिसमें मनुष्य अभ्यास से रमता है और दुःखों का अन्त पाता है । ३६ ।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ ३७ ॥
जो सुख पहले विष के समान है परंतु परिणाम में अमृत के सदृश है वह आत्मबुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न हुआ सुख सात्त्विक कहा गया है । ३७ ।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८ ॥
जो विषयों और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न हुआ सुख पहले अमृत के सदृश तथा अन्त में विष के समान है वह राजस माना गया है । ३८ ।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ३९ ॥
जो सुख पहले और अन्त में भी आत्मा को मोहित करनेवाला निद्रा आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न हुआ है वह तामस कहा गया है । ३९ ।
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥ ४० ॥
कोई ऐसा वस्तुमात्र पृथिवी या स्वर्ग या देवताओं में भी नहीं है जो इन तीन प्रकृतिज गुणों से मुक्त हो । ४० ।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥ ४१ ॥
हे परंतप ब्राह्मणों क्षत्रियों वैश्यों तथा शूद्रों के भी कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा विभक्त हैं । ४१ ।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ ४२ ॥
शम दम तप शौच क्षमा सरलता तथा ज्ञान विज्ञान और आस्तिकभाव ये सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं । ४२ ।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षत्रकर्म स्वभावजम् ॥ ४३ ॥
शूरवीरता महत्त्व अनवसाद कार्य में प्रवृत्ति युद्ध में न भागना दान और प्रभुत्व का भाव क्षत्रियों का स्वभावज कर्म है । ४३ ।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥ ४४ ॥
कृषि गोरक्षा वाणिज्य यह स्वभावज वैश्यकर्म है शूद्रों का सेवारूप कर्म भी स्वभावज है । ४४ ।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥ ४५ ॥
अपने अपने कर्मों में तत्पर पुरुष संसिद्धि लाभ करता है अपने कर्मों में तत्पर पुरुष जिस प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है वह सुन । ४५ ।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥ ४६ ॥
जिससे भूतों की प्रवृत्ति है और जिससे यह सारा जगत् व्याप्त है अपने कर्मों द्वारा उसको पूजकर मनुष्य सिद्धि को पा लेता है । ४६ ।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥ ४७ ॥
गुणरहित स्वधर्म भली प्रकार अनुष्ठित परधर्म से श्रेष्ठ है स्वभाव से नियत कर्मों को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता है । ४७ ।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥ ४८ ॥
हे कौन्तेय दोषयुक्त भी अपने सहज कर्म को नहीं छोड़ना चाहिये समस्त कर्म धुएँ से अग्नि की तरह दोष से आवृत हैं । ४८ ।
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥ ४९ ॥
जिसका अन्तःकरण सब में आसक्तिरहित है जिसका आत्मा वश में है और जिसकी तृष्णा नष्ट है वह निषकर्मतारूप सिद्धि को ज्ञानपूर्वक कर्मसंन्यास के द्वारा प्राप्त होता है । ४९ ।
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥ ५० ॥
सिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष जिस परम ज्ञाननिष्ठारूप प्रकार से ब्रह्म को प्राप्त होता है उस प्रकार को हे कौन्तेय मुझसे संक्षेप में समझ । ५० ।
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥ ५१ ॥
विशुद्ध बुद्धि से युक्त पुरुष धैर्य से अपने को वश में करके शब्दादि विषयों का त्याग करके राग और द्वेष में उदासीन होके । ५१ ।
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ॥ ५२ ॥
एकान्त देश का सेवन करनेवाला लघु आहार करनेवाला वाक् काय और मन का संयम करनेवाला नित्य ध्यानयोगपरायण तथा वैराग्य के आश्रित होनेवाला । ५२ ।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५३ ॥
अहंकार आसक्तियुक्त सामर्थ्य दर्प काम क्रोध और परिग्रह का त्याग करके जो ममतारहित और शान्त है वह ब्रह्म होने के योग्य होता है । ५३ ।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते परां ॥ ५४ ॥
ब्रह्म को प्राप्त हुआ अध्यात्मप्रसाद से युक्त पुरुष न शोक करता है न आकाङ्क्षा करता है तथा जो समस्त भूतों में सम है वह मेरी पराभक्ति का लाभ करता है । ५४ ।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥ ५५ ॥
भक्ति द्वारा मुझे मैं जितना और जो हूँ उसको तत्त्व से जान लेता है फिर मुझे तत्त्व से जानकर तत्काल मुझमें प्रवेश कर जाता है । ५५ ।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥ ५६ ॥
सब कर्मों को भी सदा करनेवाला जो पूर्ण रूप से मेरा आश्रित है वह भी मेरे प्रसाद से नित्य अविनाशी पद को प्राप्त कर लेता है । ५६ ।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥ ५७ ॥
तू मेरे परायण होके बुद्धि द्वारा समस्त कर्मों को मुझमें समर्पण करके बुद्धियोग का आश्रय लेकर निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो । ५७ ।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ॥ ५८ ॥
मुझमें चित्तवाला होके तू समस्त दुर्गतियों को मेरे प्रसाद से तर जायगा परंतु यदि तू अहंकार से मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तब विनाश को प्राप्त हो जायगा । ५८ ।
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥ ५९ ॥
जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि युद्ध नहीं करूँगा यह तेरा निश्चय मिथ्या है क्योंकि तेरी प्रकृति तुझे युद्ध में नियुक्त कर देगा । ५९ ।
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥ ६० ॥
हे कौन्तेय तू अपने स्वभावज कर्मों द्वारा दृढ़ता से बँधा हुआ है इसलिये जो तू मोह से नहीं करना चाहता है वही परवश होके करेगा । ६० ।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ ६१ ॥
हे अर्जुन ईश्वर समस्त भूतों के हृदयदेश में स्थित है यन्त्र पर आरूढ़ हुए सब भूतों को माया से भ्रमण कराता हुआ स्थित है । ६१ ।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥ ६२ ॥
हे भारत तू सर्वभाव से उसकी ही शरण में जा उसके प्रसाद से तू परम शान्ति को और शाश्वत स्थान को प्राप्त करेगा । ६२ ।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ६३ ॥
मेरे द्वारा तुझे यह गुह्य से भी गुह्य ज्ञान कहा है इस समस्त अर्थ की अशेष रूप से आलोचना करके तू जैसी इच्छा हो वैसै कर । ६३ ।
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥ ६४ ॥
सब गुह्यों में अत्यन्त गुह्य मेरे परम वचन तू फिर सुन तू मेरा दृढ़ प्रिय है इसलिये तेरा हित कहूँगा । ६४ ।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ ६५ ॥
तू मुझमें चित्तवाला मेरा भक्त हो जा मेरा यजन करता हुआ मुझे नमस्कार कर ऐसे ही तू मुझे प्राप्त होगा मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा प्रिय है । ६५ ।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ ६६ ॥
सब धर्मों का परित्याग करके मुझे एक ही शरण निश्चय कर तुझे मैं सारे पापों से मुक्त कर दूँगा शोक मत कर । ६६ ।
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयते ॥ ६७ ॥
तेरे लिये कहा हुआ यह शास्त्र तपरहित को भक्तिहीन को अशुश्रूषु को और जो मुझे दोषदृष्टि से देखता है उसको कभी नहीं सुनाना चाहिये । ६७ ।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥ ६८ ॥
जो पुरुष इस परम गुह्य शास्त्र को मेरे भक्तों में स्थापित करेगा मुझमें पराभक्ति करके वह मुझे ही निःसंदेह प्राप्त हो जायेगा । ६८ ।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥ ६९ ॥
तथा मनुष्यों में उससे बढ़कर मेरा अधिक प्रिय करनेवाला कोई अन्य नहीं है और भविष्य में भी भूलोक में उससे बढ़कर प्रियतर कोई अन्य नहीं होगा । ६९ ।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥ ७० ॥
जो हम दोनों के संवादरूप इस धर्ममय शास्त्र का अध्ययन करेगा उसके द्वारा ज्ञानयज्ञ से मैं पूजित होता हूँ ऐसा मेरा निश्चय है । ७० ।
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥ ७१ ॥
जो मनुष्य इस ग्रन्थ को श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टिरहित होकर केवल सुनता ही है वह भी मुक्त होकर पुण्यकारियों के शुभ लोकों को प्राप्त हो जाता है । ७१ ।
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेन चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय ॥ ७२ ॥
हे पार्थ क्या तूने इस शास्त्र को एकाग्रचित्त से सुना और हे धनंजय क्या तेरा अज्ञानजनित संमोह नष्ट हो गया । ७२ ।
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ ७३ ॥
अर्जुन बोला
हे अच्युत मेरा मोह नष्ट हो गया है आपके प्रसाद से मेरे द्वारा स्मृति का लाभ हुआ है मेरा सब सन्देह छूट गया है मैं आपका कहना करूँगा । ७३ ।
संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥ ७४ ॥
संजय बोला
इस प्रकार मैंने वासुदेव और महात्मा अर्जुन का अद्भुत तथा रोमाञ्च करनेवाला संवाद सुना । ७४ ।
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥ ७५ ॥
व्यास के प्रसाद से मैंने इस गुह्य परम योग को योगेश्वर कृष्ण से साक्षात स्वयं कहते हुए सुना । ७५ ।
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥ ७६ ॥
हे राजन् केशव और अर्जुन के इस अद्भुत तथा पुण्य संवाद को बारम्बार स्मरण करके मैं प्रतिक्षण हर्षित हो रहा हूँ । ७६ ।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥ ७७ ॥
तथा हे राजन् हरि के उस अति अद्भुत रूप को भी बारम्बार स्मरण करके मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है और मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ । ७७ ।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ ७८ ॥
जहाँ योगेश्वर कृष्ण और जहाँ धनुर्धर पार्थ हैं वहीं श्री वहीं विजय वहीं विभूति वहीं अचल नीति है ऐसा मेरा मत है । ७८ ।
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
समाप्तिमगमदिदं गीताशास्त्रम् ।