क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग
Kshetra Kshetragya Vibhagayoga
क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग
Kshetra Kshetragya Vibhagayoga
ॐ
त्रयोदशोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ १ ॥
श्रीभगवान बोले
हे कौन्तेय यह शरीर क्षेत्र है इस प्रकार कहा जाता है जो इसको जानता है उसको क्षेत्रज्ञ ऐसा कहते हैं । १ ।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥ २ ॥
हे भारत तू समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझको जान क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है वही ज्ञान है यह मेरा मत है । २ ।
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारी यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥ ३ ॥
यह जो क्षेत्र है वह जिस प्रकार का है जैसे विकारोंवाला है और जिस कारण से जो है तथा वह जो क्षेत्रज्ञ है जिस प्रभाववाला है उनको तू मुझसे संक्षेप से सुन । ३ ।
ॠषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ ४ ॥
यह ॠषियों द्वारा बहुत प्रकार से और विविध वेदवाक्यों द्वारा पृथक पृथक कहा गया है तथा युक्तियुक्त और विनिश्चित ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है । ४ ।
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ ५ ॥
महाभूत अहंकार बुद्धि और अव्यक्त ही दस इन्द्रियाँ और मन तथा इन्द्रियों के विषय । ५ ।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ ६ ॥
इच्छा द्वेष सुख दुःख संघात चेतना और धृति ये सब क्षेत्र हैं यह क्षेत्र विकारों सहित संक्षेप से कहा गया है । ६ ।
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ ७ ॥
अमानित्व अदम्भित्व अहिंसा क्षमा सरलता आचार्य की उपासना शौच स्थिरता आत्मनिग्रह । ७ ।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ ८ ॥
इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य एवं अहंकार का अभाव जन्म मृत्यु जरा और व्याधियों में दुःखदोष की आलोचना । ८ ।
असक्तिरनभिष्वङ्ग पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ ९ ॥
असक्ति और पुत्र स्त्री घर आदि में अनभिष्वङ्ग तथा इष्ट अथवा अनिष्ट की प्राप्ति में नित्य समचित्तता । ९ ।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥ १० ॥
मुझमें अनन्ययोग से अविचलित भक्ति पवित्र देश का सेवन जनसमुदाय में अरति । १० ।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ ११ ॥
अध्यात्मज्ञान में नित्यस्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थ की आलोचना ये सब ज्ञान के साधन होने से ज्ञान कहे गये हैं जो इनसे विपरीत है वह अज्ञान है । ११ ।
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ १२ ॥
जो जाननेयोग्य है उसको भली प्रकार से कहूँगा जिसको जानकर मनुष्य अमृत को प्राप्त होता है वह अनादिमत् परम ब्रह्म है जो न सत् और न असत् कहा जाता है । १२ ।
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १३ ॥
वह ज्ञेय सब ओर हाथ पैरवाला है सब ओर नेत्र शिर और मुखवाला है तथा सब ओर कानवाला है इस लोक में वह सब को व्याप्त करके स्थित है । १३ ।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ १४ ॥
वह ज्ञेय समस्त इन्द्रियों के गुणों से अवभासित है समस्त इन्द्रियों से रहित है वह सङ्गरहित है सब का धारण करनेवाला है निर्गुण है तो भी गुणों का भोक्ता है । १४ ।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ १५ ॥
वह भूतों के बाहर और भीतर भी व्याप्त है चर तथा अचर भी वही है वह सूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय है और वह दूर भी है एवं निकट भी है । १५ ।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥ १६ ॥
वह ज्ञेय भूतों में अविभक्त है फिर भी विभक्त हुआ सा स्थित है और वह ज्ञेय भूतों का धारण करनेवाला संहार करनेवाला तथा उत्पत्ति करनेवाला है । १६ ।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥ १७ ॥
वह ज्ञेय सब ज्योतियों का भी ज्योति है तथा तम से परम कहा जाता है ज्ञान ज्ञानगम्य तथा ज्ञेय सब के अन्तःकरण में विशेष रूप से स्थित है । १७ ।
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १८ ॥
इस प्रकार यह क्षेत्र ज्ञान और ज्ञेय संक्षेप से कह दिया है मेरा भक्त इसको समझकर मेरे भाव को प्राप्त होता है । १८ ।
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादि उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥ १९ ॥
प्रकृति और पुरुष हैं तू ही दोनों को अनादि जान विकारों और गुणों को भी तू प्रकृति से उत्पन्न जान । १९ ।
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ २० ॥
कार्य और करणों के कर्तापन में प्रकृति ही हेतु कहलाती है पुरुष सुख दुःखों के भोक्तापन में ही हेतु कहलाता है । २० ।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥२१ ॥
पुरुष प्रकृति में स्थित हुआ ही प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों का उपभोग करता है गुणों में जो आसक्ति है वह इस पुरुष के सदसद योनियों में जन्म लेने का कारण है । २१ ।
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥ २२ ॥
वह उपद्रष्टा है अनुमोदन करनेवाला है भर्ता है भोक्ता है महेश्वर है तथा परमात्मा है और वह पर पुरुष जो पहले कहा गया है इसी देह में है । २२ ।
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ २३ ॥
जो पुरुष को उपर्युक्त प्रकार से और प्रकृति को गुणों सहित जानता है वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता है । २३ ।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ २४ ॥
कोई पुरुष ध्यान के द्वारा आत्मा में आत्मा को आत्मा से देखते हैं कोई सांख्ययोग तथा अन्य कर्मयोग के द्वारा । २४ ।
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥ २५ ॥
अन्य कई इस प्रकार से नहीं जानते हुए अन्यों से सुनकर उपासना करते हैं वे सुनने के परायण लोग भी मृत्युसंसार को पार कर जाते हैं । २५ ।
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥ २६ ॥
हे भरतर्षभ जो भी स्थावरजङ्गम वस्तु उत्पन्न होती है वह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न होती है तू इस प्रकार से जान । २६ ।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २७ ॥
जो समस्त विनाशशील भूतों में परमेश्वर को समरूप से स्थित देखता है वही देखता है । २७ ।
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २८ ॥
सब भूतों मे समरूप से स्थित ईश्वर को सम देखनेवाला पुरुष अपने आप अपनी हिंसा नहीं करता है उस के कारण परम गति को प्राप्त होता है । २८ ।
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ २९ ॥
प्रकृति द्वारा समस्त कर्म सब प्रकार से सम्पादन किये जानेवाले हैं जो इस प्रकार तथा आत्मा को अकर्ता देखता है वही देखता है । २९ ।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥ ३० ॥
जब यह भूतों के पृथग्भावों को एक आत्मा में ही देखता है तथा उससे ही समस्त विस्तार देखता है तब वह ब्रह्मरूप ही हो जाता है । ३० ।
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यति ॥ ३१ ॥
यह आत्मा अनादि और निर्गुण होने के कारण अव्यय है हे कौन्तेय यह शरीर में स्थित हुआ भी कर्म नहीं करता है और कर्मफल से लिप्त नहीं होता है । ३१ ।
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ ३२ ॥
जैसे सर्वगत आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता वैसे ही आत्मा शरीर में सर्वत्र स्थित रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता । ३२ ।
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकं इमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ ३३ ॥
जैसे एक ही सूर्य इस सारे लोक को प्रकाशित करता है वैसे ही हे भारत सारे क्षेत्र को वह क्षेत्री प्रकाशित करता है । ३३ ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३४ ॥
जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अन्तर को इस पूर्वोक्त प्रकार से तथा भूतों की प्रकृति के अभाव को भी ज्ञानचक्षुओं के द्वारा जान लेते हैं वे ही परम को प्राप्त होते हैं । ३४ ।
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥