विश्वरूपयोग
विश्वरूपयोग
ॐ
एकादशोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ १ ॥
अर्जुन बोला
मुझपर अनुग्रह करने के लिये आपके द्वारा जो परम गोपनीय अध्यात्म नामक वचन कहा है उससे मेरा यह मोह नष्ट हो गया है । १ ।
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥ २ ॥
मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तार से ही सुने हैं और हे कमलपत्राक्ष आपका अक्षय माहात्म्य भी मैं सुन चुका हूँ । २ ।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥ ३ ॥
हे परमेश्वर आप अपने को यथा बतलाते हैं आप ठीक वैसे ही हैं हे पुरुषोत्तम आपके ऐश्वर्यमय रूप को मैं देखना चाहता हूँ । ३ ।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥ ४ ॥
हे प्रभु यदि मेरे द्वारा उस रूप को देखना आप सम्भव मानते हैं तो हे योगेश्वर आप मुझे अपने अव्यय स्वरूप का दर्शन कीजिये । ४ ।
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥ ५ ॥
श्रीभगवान बोले
हे पार्थ तू मेरे सैकड़ों हजारों रूपों को देख जो नाना प्रकार के दिव्य और नाना प्रकार के वर्ण और आकारवाले हैं । ५ ।
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥ ६ ॥
हे भारत तू आदित्यों को वसुओं को रुद्रों को अश्विनीकुमारों को और मरुद्गणों को देख तथा जो किसीने कभी नहीं देखा ऐसे बहुत से आश्चर्यमय दृश्य देख । ६ ।
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि ॥ ७ ॥
हे गुडाकेश अब तू मेरे शरीर में एक स्थान में स्थित चराचरसहित समस्त जगत् को देख तथा जो भी अन्य देखना चाहता हो सो देख । ७ ।
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥ ८ ॥
तू मुझे इन अपने नेत्रों से ही नहीं देख सकेगा मैं तुझे दिव्य नेत्र देता हूँ उनके द्वारा तू मेरे योग और ऐश्वर्य को देख । ८ ।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥ ९ ॥
संजय बोला
हे राजा इस प्रकार कहकर फिर महायोगेश्वर हरिने अर्जुन को अपना ईश्वररीय परम रूप को दिखाया । ९ ।
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥ १० ॥
जो अनेक मुख और नेत्रोंवाला है तथा अनेक अद्भुत दृश्योंवाला है जो अनेक दिव्य भूषणोंवाला है और जो अनेक उठाये हुए दिव्य आयुधों से युक्त है । १० ।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥ ११ ॥
जो दिव्य मालाओं और वस्त्रों को धारण कर रखा है जो दिव्य गन्धों का अनुलेपन को धारण कर रखा है जो सब आश्चर्यमय दृश्यों से युक्त अनन्त और सब दिशाओं में मुखवाला देव है । ११ ।
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ १२ ॥
द्युलोक में एक साथ उदित हज़ारों सूर्यों का जो प्रकाश हो वह प्रकाश उस महात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित् हो तो हो अथवा सम्भव है कि न हो । १२ ।
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥ १३ ।
उस समय पाण्डवने अनेक प्रकार विभक्त समस्त जगत् को देवाधिदेव हरि के शरीर में एकत्र स्थित देखा । १३ ।
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥ १४ ॥
फिर वह आश्चर्ययुक्त और खड़े हुए रोमवाला धनंजय विश्वरूपी देव को शिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोला । १४ ।
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥ १५ ॥
अर्जुन बोला
हे देव मैं आपके शरीर में समस्त देवों को तथा भूतविशेषों के समूह को एवं शासनकर्ता कमलासनस्थ ब्रह्मा को ॠषियों को और समस्त दिव्य उरगों को देख रहा हूँ । १५ ।
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥ १६ ॥
मैं आपको अनेकों भुजा उदर मुख और नेत्रोंवाला तथा सब ओर अनन्त रूपवाला देख रहा हूँ हे विश्वेश्वर हे विश्वरूप मैं आपका न अन्त न मध्य और न आदि ही देखता हूँ । १६ ।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतोदीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥ १७ ॥
मैं आपको किरीटी गदी चक्री तेज का समूह और सब ओर दीप्तिमान देख रहा हूँ तथा आपको मैं दुर्निरीक्ष्य तथा सब ओर प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के समान द्युतिमान एवं अप्रमेय देखता हूँ । १७ ।
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥ १८ ॥
आप परम अक्षर जाननेयोग्य हैं आप ही इस विश्व के परम आश्रय हैं आप अव्यय हैं और शाश्वत धर्म के रक्षक हैं आप ही सनातन पुरुष हैं यह मेरा मत है । १८ ।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥ १९ ॥
आपको मैं आदि मध्य और अन्त से रहित अनन्त सामर्थ्यवाला तथा अनन्त भुजाओंवाला चन्द्रमा और सूर्यरूप नेत्रोंवाला प्रज्वलित अग्निरूप मुखवाला एवं अपने तेज से इस विश्व को तपायमान करते हुए देख रहा हूँ । १९ ।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥ २० ॥
एकमात्र आपसे यह स्वर्ग और पृथिवी के बीच का अन्तरीक्ष और समस्त दिशाएँ भी व्याप्त हैं हे महात्मन् आपके इस अद्भुत और क्रूर रूप को देखकर तीनों लोक विचलित हो रहे हैं । २० ।
अमी हि त्वा सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥ २१ ॥
यह सुरगण आपमें प्रवेश कर रहे हैं कोई भयभीत होकर हाथ जोड़ते हैं महर्षियों और सिद्धों के समुदाय स्वस्तिवचन करके सम्पूर्ण स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं । २१ ।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वा विस्मिताश्चैव सर्वे ॥ २२ ॥
जो रुद्र आदित्य वसु और साध्य आदि देवगण जो विश्वेदेव अश्विनीकुमारद्वय वायुदेव और ऊष्मपा पितृगण हैं तथा जो गन्धर्व यक्ष असुर और सिद्धों के संघ हैं वे सभी आपको आश्चर्य से देख रहे हैं । २२ ।
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥ २३ ॥
हे महाबाहो आपके यह महान् अनेकों मुखों और नेत्रोंवाला अनेकों भुजाओं जंघाओं और पादोंवाला अनेकों उदरवाला अनेकों दाढ़ों से विकराल रूप को देखकर समस्त लोक तथा मैं भी व्याकुल हो रहे हैं । २३ ।
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृति न विन्दामि शमं च विष्णो ॥ २४ ॥
आपको आकाशस्पर्शी प्रदीप्त अनेक वर्णोंवाले फैलाये मुखोंवाले और प्रज्वलित विशाल नेत्रोंवाले देखकर हे विष्णो प्रव्यथित अन्तरात्मावाला मैं धैर्य और शान्ति को नहीं पा रहा हूँ । २४ ।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ २५ ॥
दाढ़ों से युक्त विकराल और कालाग्नि के समान आपके मुखों को देखकर मैं दिशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख नहीं मिल रहा है अतः हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न होइये । २५ ।
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥ २६ ॥
ये धृतराष्ट्र के समस्त पुत्र अवनिपालों के दलों के साथ और भीष्म द्रोण सूतपुत्र तथा हमारी ओर के भी मुख्य योद्धाओं के सहित । २६ ।
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः ॥ २७ ॥
शीघ्रता से आपके दाढ़ोंवाले विकराल भयंकर मुखों में प्रवेश कर रहे हैं तथा कितने ही विचूर्णित मस्तकों सहित दाँतों के बीच में चिपके हुए हैं । २७ ।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥ २८ ॥
जैसे नदियों के बहुत से जलप्रवाह समुद्र के सम्मुख बहते हैं वैसे ही ये मनुष्यलोक के शूरवीर आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं । २८ ।
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥ २९ ॥
जैसे पतङ्ग अपने नाश के लिये अत्यन्त वेग से प्रदीप्त अग्नि में प्रवेश करते हैं वैसे ही ये प्राणी भी अपने नाश के लिये अत्यन्त वेग से आपके मुखों में प्रवेश कर रहे हैं । २९ ।
लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥ ३० ॥
आप समस्त लोकों को देदीप्यमान मुखों द्वारा सब ओर से निगलते हुए चाट रहे हैं तथा हे विष्णो आपकी उग्र दीप्तियाँ समस्त जगत् को अपने तेज से व्याप्त करके तप रही हैं । ३० ।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥ ३१ ॥
मुझे बताइये कि आप उग्ररूप कौन हैं हे देववर आपको नमस्कार हो आप कृपा करें आदि में होनेवाले आपको मैं विशेष रूप से जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं समझ रहा हूँ । ३१ ।
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ॠतेऽपि त्वा न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥ ३२ ॥
श्रीभगवान बोले
मैं लोकों का क्षय करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ इस समय मैं लोकों का संहार करने के लिये प्रवृत्त हूँ ऐसे ही तेरे विना भी ये सब प्रतिपक्षियों की सेनाओं में अवस्थित योद्धालोग नहीं रहेंगे । ३२ ।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥
इसलिये तू खड़ा हो यश को लाभ कर शत्रुओं को जीतकर समृद्धिसम्प्न राज्य भोग ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे हुए हैं हे सव्यसाचिन् तू केवल निमित्तमात्र बन जा । ३३ ।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यतिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥ ३४ ॥
द्रोण भीष्म जयद्रथ कर्ण तथा अन्य वीर योद्धा भी मेरे द्वारा मारे हुए हैं उनको तू निमित्त होके मार उनसे भय मत कर युद्ध कर तू रण में शत्रुओं को जीतेगा । ३४ ।
संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥ ३५ ॥
संजय बोला
केशव के इन वचनों को सुनकर अर्जुन काँपता हुआ हाथ जोड़कर नमस्कार करके फिर भयभीत हुआ प्रणाम करके कृष्ण से गद्गद वाणी से बोला । ३५ ।
अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ॥ ३६ ॥
अर्जुन बोला
हे हृषीकेश यह उचित है कि आपकी कीर्ति से जगत् हर्षित हो रहा है और आपका अनुराग करता है राक्षस भय से सब दिशाओं में भाग रहे हैं और समस्त सिद्ध समुदाय नमस्कार कर रहे हैं । ३६ ।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥ ३७ ॥
हे महात्मन् वे नमस्कार किसलिये न करें आप गुरुतर और ब्रहमा के आदिकर्ता हैं हे अनन्त हे देवेश हे जगन्निवास आप ही अक्षर हैं जो सत् और असत् कहा जाता है परंतु वास्तव में दोनों से परे है । ३७ ।
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥ ३८ ॥
आप आदिदेव पुराण पुरुष हैं आप ही इस विश्व के परम स्थान हैं तथा जाननेवाले और जाननेयोग्य भी आप ही हैं आप परम धाम हैं हे अनन्तरूप विश्व आपसे व्याप्त है । ३८ ।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ ३९ ॥
आप ही वायु यम अग्नि वरुण चन्द्रमा प्रजापति और प्रपितामह भी हैं आपको सहस्रों नमस्कार हो नमस्कार हो फिर भी बारंबार नमस्कार हो नमस्कार हो । ३९ ।
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥ ४० ॥
आपको आगे से और पीछे से भी नमस्कार हो हे सर्व आपको सब दिशाओं से नमस्कार हो आप अनन्तवीर्य और अपार पराक्रमवाले हैं आप समस्त जगत् को सम्यग् रूप से व्याप्त होते हैं ततः आप सर्व हैं । ४० ।
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि । ४१ ।
आपकी इस महिमा को न जाननेवाले मेरे द्वारा आपको मित्र समझकर जो अपमानपूर्वक हे कृष्ण हे यादव हे सखे इत्यादि वचन कहे गये हैं या प्रमाद या तो प्रणय के कारण कहा है । ४१ ।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥ ४२ ॥
तथा जो हँसी के लिये विहार शय्या आसन भोजन आदि में आप मेरे द्वारा अपमानित हुए हैं अकेले में अथवा आपके सामने हे अच्युत उन सब को मैं आपअप्रमेय से क्षमा कराता हूँ । ४२ ।
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गीयान् ।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥ ४३ ॥
आप इस चराचर जगत् के पिता हैं और पूजनीय बड़े से बड़े गुरु हैं हे अप्रतिमप्रभाव तीनों लोकों में आपके समान कोई नहीं है फिर अधिक कोई हो ही कैसे सकता है । ४३ ।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥ ४४ ॥
इसलिये मैं अपने काय को प्रकृष्ट रूप से प्रणाम करके आप स्तुत्य ईश को प्रसन्न करता हूँ और जैसे पिता पुत्र के मित्र मित्र के प्रिय प्रिया के अपराध को सहन करता है वैसे ही हे देव आप भी सहन करने योग्य हैं । ४४ ।
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ ४५ ॥
आपके पहले न देखे हुए रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ तथा साथ ही मेरा मन भय से व्याकुल भी हो रहा है इसलिये हे देव मुझे अपना वह मित्ररूप दिखाइये हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न होइये । ४५ ।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥ ४६ ॥
मैं आपको वैसे ही मुकुटवाले गदेवाले हाथ में चक्र धारण करनेवाले देखना चाहता हूँ हे सहस्रबाहो हे विश्वमूर्ते आप उस चतुर्भुज स्वरूप से युक्त होइये । ४६ ।
श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥ ४७ ॥
श्रीभगवान बोले
हे अर्जुन प्रसन्न हुए मेरे द्वारा अपने ऐश्वर्य से जो मेरा यह परम तेजोमय अनन्त और अनादि विश्वरूप तुझे दिखाया है तेरे सिवा पहले किसीसे भी नहीं देखा गया । ४७ ।
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥ ४८ ॥
न वेदों से न यज्ञों से न अध्ययन करने से न दान से न क्रियाओं से और न उग्र तप से हे कुरुप्रवीर इसी मनुष्यलोक में मैं ऐसे रूप में तेरे सिवा किसी अन्य के द्वारा देखने योग्य नहीं हूँ । ४८ ।
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥ ४९ ॥
मेरे इस घोर रूप को देखकर तुझे भय और मूढ़ावस्था नहीं होनी चाहिये तू भयरहित और प्रसन्नचित्त हुआ मेरे यही इष्ट रूप को फिर देख । ४९ ।
संजय उवाच
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥ ५० ॥
संजय बोला
इस प्रकार वासुदेव ने अर्जुन को वचन कहकर फिर अपना वही रूप दिखाया और महात्मा ने पुनः सौम्यदेहधारी होके इस भयभीत को आश्वासन दिया । ५० ।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥ ५१ ॥
अर्जुन बोला
हे जनार्दन आपके इस सौम्य मानुषरूप को देखकर अब मैं प्रसन्नचित्त हुआ हूँ और अपनी प्रकृति को प्राप्त हुआ हूँ । ५१ ।
श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥ ५२ ॥
श्रीभगवान बोले
मेरे जिस रूप को तूने देखा है वह बड़ा दुर्दर्श है देवता भी इस रूप का दर्शन करने की नित्य आकाङ्क्षा करते हैं । ५२ ।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥ ५३ ॥
मैं न वेदों से न तप से न दान से और न यजन से वैसे ही देखा जा सकता हूँ जिस प्रकार मुझे तूने देखा । ५३ ।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥ ५४ ॥
हे अर्जुन अनन्य भक्ति द्वारा इस प्रकार के रूपवाला मैं जाना जा सकता हूँ और तत्त्व से देखा भी जा सकता हूँ तथा हे परंतप प्राप्त भी किया जा सकता हूँ । ५४ ।
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ ५५ ॥
जो मेरे लिये कर्म करनेवाला है और मेरे परायण है जो मेरा भक्त है तथा सङ्गरहित है और जो सब भूतों में वैरभावरहित है हे पाण्डव वह मुझे प्राप्त होता है । ५५ ।
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥